Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद



कुँवर साहब-हाँ-हाँ, अभी तो कल ही गया था, वही अंधा है न, काला-काला, दुबला-दुबला, जो सवारियों के पीछे दौड़ा करता है?
जॉन सेवक-जी हाँ, वही-वही। वह जमीन उसकी है; किंतु वह उसे किसी दाम पर नहीं छोड़ना चाहता। मैं उसे पाँच हजार तक देता था; पर राजी न हुआ। वह बहुत झक्की-सा है। कहता है, मैं वहाँ धर्मशाला, मंदिर और तालाब बनवाऊँगा। दिन-भर भीख माँगकर तो गुजर करता है, उस पर इरादे इतने लम्बे हैं। कदाचित् मुहल्लेवालों के भय से उसे कोई मामला करने का साहस नहीं होता। मैं एक निजी मामले में सरकार से सहायता लेना उचित नहीं समझता; पर ऐसी दशा में मुझे इसके सिवा दूसरा कोई उपाय भी नहीं सूझता। और, फिर यह बिल्कुल निजी बात भी नहीं है। म्युनिसिपैलिटी और सरकार दोनों ही को इस कारखाने से हजारों रुपये साल की आमदनी होगी, हजारों शिक्षित और अशिक्षित मनुष्यों का उपकार होगा। इस पहलू से देखिए, तो यह सार्वजनिक काम है, और इसमें सरकार से सहायता लेने में मैं औचित्य का उल्लंघन नहीं करता। आप अगर जरा तवज्जह करें, तो बड़ी आसानी से काम निकल जाए।
कुँवर साहब-मेरा उस फकीर पर कुछ दबाव नहीं है, और होता भी, तो मैं उससे काम न लेता।
जॉन सेवक-आप राजा साहब चतारी...
कुँवर साहब-नहीं, मैं उनसे कुछ नहीं कह सकता। वह मेरे दामाद हैं, और इस विषय में मेरा उनसे कहना नीति-विरुध्द है। क्या वह आपके हिस्सेदार नहीं हैं?
जॉन सेवक-जी नहीं, वह स्वयं अतुल सम्पत्ति के स्वामी होकर भी धनियों की उपेक्षा करते हैं। उनका विचार है कि कल-कारखाने पूँजीवालों का प्रभुत्व बढ़ाकर जनता का अपकार करते हैं। इन्हीं विचारों ने तो उन्हें यहाँ प्रधान बना दिया।
कुँवर साहब-यह तो अपना-अपना सिध्दांत है। हम द्वैध जीवन व्यतीत कर रहे हैं, और मेरा विचार यह है कि जनतावाद के प्रेमी उच्च श्रेणी में जितने मिलेंगे, उतने निम्न श्रेणी में न मिल सकेंगे। खैर, आप उनसे मिलकर देखिए तो। क्या कहूँ, शहर के आस-पास मेरी एक एकड़ जमीन भी नहीं है, नहीं तो आपको यह कठिनाई न होती। मेरे योग्य और जो काम हो, उसके लिए हाजिर हूँ।
जॉन सेवक-जी नहीं, मैं आपको और कष्ट देना नहीं चाहता, मैं स्वयं उनसे मिलकर तय कर लूँगा।
कुँवर साहब-अभी तो मिस सोफ़िया पूर्ण स्वस्थ होने तक यहीं रहेंगी न? आपको तो इसमें कोई आपत्ति नहीं है?
जॉन सेवक इस विषय में सिर्फ दो-चार बातें करके यहाँ से विदा हुए। मिसेज़ सेवक फिटन पर पहले ही से आ बैठी थीं। प्रभु सेवक विनय के साथ बाग में टहल रहे थे। विनय ने आकर जॉन सेवक से हाथ मिलाया। प्रभु सेवक उनसे कल फिर मिलने का वादा करके पिता के साथ चले। रास्ते में बातें होने लगीं।
जॉन सेवक-आज एक मुलाकात में जितना काम हुआ, उतना महीनों की दौड़-धूप से भी न हुआ था। कुँवर साहब बड़े सज्जन आदमी हैं। 50 हजार के हिस्से ले लिए। ऐसे ही दो-चार भले आदमी और मिल जाएँ, तो बेड़ा पार है।
प्रभु सेवक-इस घर के सभी प्राणी दया और धर्म के पुतले हैं। विनयसिंह जैसा वाक्-मर्मज्ञ नहीं देखा। मुझे तो इनसे प्रेम हो गया।
जॉन सेवक-कुछ काम की बातचीत भी की?
प्रभु सेवक-जी नहीं, आपके नजदीक जो काम की बातचीत है, उन्हें उसमें जरा भी रुचि नहीं। वह सेवा का व्रत ले चुके हैं, और इतनी देर तक अपनी समिति की ही चर्चा करते रहे।
जॉन सेवक-क्या तुम्हें आशा है कि तुम्हारा यह परिचय चतारी के राजा साहब पर भी कुछ असर डाल सकता है? विनयसिंह राजा साहब से हमारा कुछ काम निकलवा सकते हैं?
प्रभु सेवक-उनसे कहे कौन, मुझमें तो इतनी हिम्मत नहीं। उन्हें आप स्वदेशानुरागी संन्यासी समझिए। मुझसे अपनी समिति में आने के लिए उन्होंने बहुत आग्रह किया है।
जॉन सेवक-शरीक हो गए न?
प्रभु सेवक-जी नहीं, कह आया हूँ कि सोचकर उत्तर दूँगा। बिना सोचे-समझे इतना कठिन व्रत क्योंकर धारण कर लेता।
जॉन सेवक-मगर सोचने-समझने में महीनों न लगा देना। दो-चार दिन में आकर नाम लिखा लेना। तब तुम्हें उनसे कुछ काम की बातें करने का अधिकार हो जाएगा। (स्त्री से) तुम्हारी रानीजी से कैसी निभी?
मिसेज़ सेवक-मुझे तो उनसे घृणा हो गई। मैंने किसी में इतना घमंड नहीं देखा।
प्रभु सेवक-मामा, आप उनके साथ घोर अन्याय कर रही हैं।
मिसेज़ सेवक-तुम्हारे लिए देवी होंगी, मेरे लिए तो नहीं हैं।
जॉन सेवक-यह तो मैं पहले ही समझ गया था कि तुम्हारी उनसे न पटेगी। काम की बातें न तुम्हें आती हैं, न उन्हें। तुम्हारा काम तो दूसरों में ऐब निकालना है। सोफी को क्यों नहीं लाईं?
मिसेज़ सेवक-वह आए भी तो, या जबरन घसीट लाती?
जॉन सेवक-आई नहीं या रानी ने आने नहीं दिया?
प्रभु सेवक-वह तो आने को तैयार थी, किंतु इसी शर्त पर कि मुझ पर कोई धार्मिक अत्याचार न किया जाए।
जॉन सेवक-इन्हें यह शर्त क्यों मंजूर होने लगी!
मिसेज़ सेवक-हाँ, इस शर्त पर मैं उसे नहीं ला सकती। वह मेरे घर रहेगी, तो मेरी बात माननी पड़ेगी।
जॉन सेवक-तुम दोनों में एक का भी बुध्दि से सरोकार नहीं। तुम सिड़ी हो, वह जिद्दी है। उसे मना-मनूकर जल्दी लाना चाहिए।
प्रभु सेवक-अगर मामा अपनी बात पर अड़ी रहेंगी, तो शायद वह फिर घर न जाए।
जॉन सेवक-आखिर जाएगी कहाँ?
प्रभु सेवक-उसे कहीं जाने की जरूरत ही नहीं। रानी उस पर जान देती हैं।
जॉन सेवक-यह बेल मुँढ़े चढ़ने की नहीं है। दो में से एक को दबना पड़ेगा।
लोग घर पहुँचे, तो गाड़ी की आहट पाते ही ईश्वर सेवक ने बड़ी स्नेहमयी उत्सुकता से पूछा-सोफी आ गई न? आ, तुझे गले लगा लूँ। ईसू तुझे अपने दामन में ले।
जॉन सेवक-पापा, वह अभी यहाँ आने के योग्य नहीं है। बहुत अशक्त हो गई है। दो-चार दिन बाद आवेगी।
ईश्वर सेवक-गज़ब खुदा का! उसकी यह दशा है, और तुम सब उसे उसके हाल पर छोड़ आए! क्या तुम लोगों में जरा भी मानापमान का विचार नहीं रहा! बिल्कुल खून सफेद हो गया?
मिसेज़ सेवक-आप जाकर उसकी खुशामद कीजिएगा, तो आवेगी। मेरे कहने से तो नहीं आई। बच्ची तो नहीं कि गोद में उठा लाती?
जॉन सेवक-पापा, वहाँ बहुत आराम से है। राजा और रानी, दोनों ही उसके साथ प्रेम करते हैं। सच पूछिए, तो रानी ही ने उसे नहीं छोड़ा।
ईश्वर सेवक-कुँवर साहब से कुछ काम की बातचीत भी हुई?
जॉन सेवक-जी हाँ, मुबारक हो। 50 हजार की गोटी हाथ लगी।
ईश्वर सेवक-शुक्र है, शुक्र है, ईसू, मुझ पर अपना साया कर। यह कहकर वह फिर आराम-कुर्सी पर बैठ गए।

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